प्रेम एवं प्रकृति के अनूठे कवि केदारनाथ अग्रवाल
डॉ. शहाबुद्दीन
प्रगतिशील कवियों में केदार विशिष्ट स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। यह विशिष्टता और प्रतिष्ठा उन्हें उनकी वैचारिक स्पष्टता एवं सहज अभिव्यक्ति से हासिल हुई है। व्यापक और सूक्ष्म कवि-दृष्टि वाले केदार का कवित्व कई दिशाओं में विकसित हुआ है। प्रेम और प्रकृति की सुंदरता को साक्षात करती उनकी सौंदर्य-दृष्टि समाज और राजनीति की कुरूपता को भी दर्ज करती है। वे प्रेम और सौंदर्य के अनूठे कवि हैं। प्रेम और प्रकृति के अनेक रूप-स्वरूप उनकी कविता में मौजूद हैं। ये उनके रागात्मक भाव-बोध की सुन्दर अभिव्यक्ति के माध्यम बने हैं। प्रेम एवं प्रकति उनकी कविता का एक छोर हैं तो समाज एवं राजनीति दूसरा छोर। इनके मध्य है जीवन का सत्य, संघर्ष-शोषण के चित्र, रागात्मक संबंध, इतिहास-परम्परा-बोध, समसामयिकता और समतापूर्ण भविष्य के निर्माण का स्वप्न!
प्रेम एक जीवन-मूल्य है जिसके अनेक स्वरूप हैं, मानवीय प्रेम, देश-प्रेम, प्रकृति-प्रेम आदि। केदार अनेक कोणों से प्रेम को अपनी कविता की विषयवस्तु बनते हैं। मानवीय प्रेम के कई स्वरूप एवं रोमांटिक अनुभूतियाँ उनकी कविता में अभिव्यक्त हुईं। “आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने प्रकृति-प्रेम को देश-प्रेम का उत्कृष्ट रूप माना है।”1 इस तरह केदार के प्रकृति-प्रेम को देश-प्रेम के रूप में भी समझना चाहिए। प्रकृति-प्रेम के चित्ताकर्षक रूप उनकी कविता को अनुपम बनाते हैं। उनकी ‘बसंती हवा’ अनुपमेय है जो सभी प्राणियों को बिना भेद किए ‘प्रेम-आसव’ पिलाती है, उन्हें जिजीविषा देती है। यह स्वच्छंद मस्तमौला प्रवृत्ति की किशोरी प्रकृति के दूसरे अवयवों से हँसी-ठिठोली करती है तो प्राणियों से चुहलबाजी करने से भी बाज नहीं आती! उसका ह्रदय निष्कलुष है; किसी के प्रति छल-कपट या राग-द्वेष से रहित। अल्लहड़ स्वभावी वह अजनबी-अपरिचित से भी ठिठोली करने से नहीं चूकती! अनायास ही त्रिलोचन की ‘धूप सुन्दर’ कविता स्मृति में कौंधती है। लगता है जैसे केदार त्रिलोचन की तरह मनुष्य के ऐसे सुंदर रूप के आकांक्षी हैं जो निष्कलुष हो, जो व्यक्ति-व्यक्ति में भेद न करे, जो भौतिकवाद के नियमों को मानते हुए तर्कशील हो, जो वैज्ञानिक चेतना से लैस हो आदि-आदि।
केदार का मन अनुरागी है। प्रेम से लबरेज! कविताओं में निरंतर छलकता रहा, प्रिया ही नहीं प्रकृति को भी निहारकर। ‘बसंती हवा’ हो या ‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ सभी में प्राकृतिक-सुषमा और ‘प्रेम आसव’ भरा है। यह प्रेम-आसव मात्र कवि या पाठक हेतु नहीं, प्रत्येक प्राणी के लिए है! मानवेतर ही नहीं, देशकालातीत! जिसमें जीवंतता-सजीवता है कृत्रिमता नहीं। ग्रामीण-लोक में पुष्पित-पल्लवित होते प्रेम-आसव में प्रकृति और कवि दोनों स्वच्छंद हैं। “मैं यहाँ स्वच्छंद हूँ/जाना नहीं है”।2 यहाँ “चुप्पे-चुप्पे” उसे सुननी हैं प्रेम की सच्ची कहानियाँ। शहरी जीवन की तरह यहाँ कोई विघ्न-बाधा नहीं इसलिए ‘व्यापारिक नगर से दूर’ प्रयोग के नितिहार्थ स्पष्ट हैं। यहीं विजन में खेत की मेड़ पर स्वच्छंद बैठे कवि को ‘हरा ठिगना चना’ अपने शीश पर गुलाबी फूल का मुरैठा बाँधे दिखा। यहीं उसे ‘लचीली कमर’ और ‘पतली देह’ की हठीली अलसी नीले फूल को सिर पर चढ़ा अपने सौन्दर्य को छू लेने की चुनौतीपूर्ण मुद्रा में दिखी! यहीँ सरसों उसे सयानी युवती-सी दिखी जो हाथ पीले कर विवाह-मण्डप में बैठी है। ‘फाल्गुन’ का महीना और काग गा रहा है। स्वयंवर का अनुपम दृश्य! एक युवक को दो युवतियों में से चुनाव का विकल्प! पितृसत्ता का दखल नहीं, अनायास ही परम्परा-उच्छेदन! परंपरा का विपर्यय! ऐसे में व्यापारिक नगर से दूर ‘प्रेम की प्रिय भूमि अधिक उपजाऊ’ लगे तो आश्चर्य कैसा? आत्मपरकता एवं सामाजिकता का द्वंद्वात्मक संबंध! सौंदर्यमय प्रकृति और रमणीय परिवेश में उभरी प्रेमानुभूति रसमय आनंद का संचार करती है। क्या ठिगना चना, अलसी और सरसों की भूमिकाओं से कृष्ण-राधा-रुक्मणी की परम्परागत छवि स्मृति में उभरी? क्या यह छवि केदार की चेतना में रही होगी? उनके साहित्य का अवलोकन करने से स्पष्ट समझ बनती है कि केदार भारतीय जनमानस में बसी राधा-कृष्ण की युगल छवि से प्रभावित रहे हैं। उनकी कविताओं के मध्य यह छवि बारम्बार उभरती है। इस दृष्टि से वे भारतीय परंपरा के वाहक कवि हैं। प्रगतिशील कविता के परंपराभंजक होने की जो छवि निर्मित हुई उसे केदार की कविताएँ निर्मूल साबित करती हैं। वे परंपरा को जड़ रूप में नहीं गतिशील-प्रगतिशील रूप में अपनाते हैं।
प्रकृति-सौन्दर्य एवं प्रेम का संश्लिष्ट रूप बारम्बार केदार की कविता में उभरा है। इस रूप में मानवीय संवेदना एवं लोकचेतना गुथी है। उनकी कविता में ‘बसंत’ का आगमन संकुचित प्रकृति को ‘रूप-राग-रस-गंध-भार’ से समृद्ध करता है तो ‘धूप’ उसे मायके में आयी बेटी की तरह प्रतीत होती है। यहाँ प्रेम की भंगिमाएँ कवि-दृष्टि का परिचय देती हैं। यह दृष्टि लोकचेतना से समृद्ध है। ‘धूप’ और ‘सरसों’ दो हमजोली सखियों की तरह गले मिलती हैं तो समझना होगा कि कवि सहज मानवीय संबंध के प्रति गंभीर है। ये स्थितियाँ एक ओर लोक के प्रति उसकी समझ को स्पष्ट करती हैं तो दूसरी ओर स्त्रियों के प्रति संवेदनशीलता का परिचय देती हैं। समझना होगा कि दो स्त्रियाँ क्यों भाव-विभोर होकर गले मिलीं? दरअसल हमारी सामाजिक परम्पराएँ इस तरह की रहीं हैं कि एक ही गाँव या परिवार की स्त्रियाँ विवाह के बाद पति-इच्छा के अधीन होती हैं। इसलिए उनका मिलन किसी तीज-त्यौहार या उत्सव पर ही होता था। यह अवसर उनमें उत्साह व उमंग का संचार करता है। इसी स्थिति का निरूपण ‘धूप’ और ‘सरसों’ के माध्यम से हुआ है। यदि पुरुष ससुराल जाता तो क्या यह स्थिति दो पुरुषों के मध्य न होती? कहे से ज्यादा अनकहा कवि के दायित्वबोध को उजागर करता है।
केदार प्रेम एवं प्रकृति की भूमि पर रची कविताओं में सामाजिक मर्यादाओं का अतिक्रमण नहीं करते। वे संकेतों-व्यंजनाओं के सहारे अपने रोमांटिक भावों को व्यक्त करते हैं; भौंडे-निर्लज्ज चित्रण से बचते हुए। उनमें बतरस है, यौन-कुंठाएँ नहीं! उनकी कविताओं में उच्छश्रृंखलता नहीं, सहजता है; विद्रूपता नहीं, स्वाभाविक सौंदर्यमयी चेष्टाएँ हैं। उनमें प्रेम की नैसर्गिक छवियाँ हैं। रूप-भाव का ऐसा सुन्दर सामंजस्य साहित्यिक-परम्परा में बहुत कम उभरा है। इस परिप्रेक्ष्य में ‘प्यार और प्रकृति’ कविता का रसास्वादन करें-
धूप
पीता है फूल,
प्यार की
पलक-पंखुडियाँ खोले।
‘हंस’
तैरता है
आप्तकाम
हंसिनी के साथ
जल विहार में।
नाच होता है
हिरन की आँखों में
मोरपंखी
नाच में
हिलती है
मदन-महीप की
कलँगी।3
ऐसी कविताओं को हृदयंगम करने के लिए ठहरकर पढ़ने के साथ ह्रदय में सौंदर्य और प्रेम की उर्वर भूमि का होना अपेक्षित है। नीरस-शुष्क हृदय का व्यक्ति इनका आस्वादन नहीं कर सकता। उसमें प्रेमपूर्ण भावनाएँ उद्दीप्त न होंगी। ऐसे बिम्ब तो कल्पना-शक्ति से साकार भी हो जाएँ परंतु सौन्दर्यात्मक अनुभूतियाँ रसाल व्यक्तित्व की माँग करती हैं। केदार का व्यक्तित्व कुछ इसी तरह का है। उन्हें उनके वकालती पेशे के आलोक में समझने की पाठक भूल न करें। उनकी काव्यानुभुतियों को आत्मसात करने के लिए पाठक की ज्ञानेन्द्रियों का तत्पर होना भी जरुरी है। वे सृजनात्मक कवि हैं। कहीं उनकी कविता चित्रात्मक होती है तो कहीं गतिशील बिम्ब में गढ़ी हुई। यूँ तो उनकी अनुभूतियाँ सहज ढंग से दर्ज होती हैं, परंतु उनमें गहराई भी है। फिर भी औसत दर्जे का व्यक्ति भी उन्हें समझ सकता है। किलिष्टता उनकी कविता का स्वाभाव नहीं है। उनमें शब्द-संयोजन इस अर्थ में विशिष्ट है कि कवि-अनुभव का आस्वादन करने में विघ्न नहीं डालता। उनकी ‘माँझी न बजाओ बंशी’4 और ‘धूप का गीत’ इसी तरह की कविताएँ हैं। इनमें नैरंतर्य-तारतम्यता का गुण है। बिम्ब गतिशील हैं। धूप पंक्ति-दर-पंक्ति उतरी से बिखरी, बिखरी से निखरी तक की यात्रा में है। इस यात्रा के मध्य जीवन के कारोबार के फलने-फूलने एवं जगत की गतिविधियों का सूक्ष्म निरूपण है। ‘मोहिनी और मैं’ कविता में ‘मैं ठगाया’ को कविता की पंक्ति-दर-पंक्ति क्रमबद्धता में देखने पर प्रेम की उच्चभूमि सामाजिक मर्यादा के साथ दिखाई पड़ती है।
केदार सौंदर्यमय दृष्टि के स्वामी हैं। वे अलग-अलग कोणों से प्रकृति को निहारते हैं। कहीं उनके प्रकृति-चित्रण में विचार मुखर हो गए हैं तो कहीं वे प्रकृति-प्रेम के चित्ताकर्षक चित्र उकेरते हैं। ‘‘नौजवान नदी’’ कविता में नदी उन्हें युवा ढीठ लड़की सी लगी जिसकी जाँघ खुली; हँसों से भरी हैं और जिसने बला की सुंदरता पाई है। इसीलिए उसके पास अनेक पेड़ रहते हैं और मस्त नौजवान लड़कों से ‘झुकते-झूमते-चूमते’ रहते हैं। उन्हें नदी के ‘कूल’ भी उससे जी-जान से प्रेम करते प्रतीत होते हैं ‘जैसे वे बड़े कुशल समर-शूर सैनिक’ हों। स्वच्छंद मनोभावों की अभिव्यक्ति पर सामाजिक मर्यादा का अतिक्रमण। प्रकृति-सौंदर्य के चित्रण तक तो ठीक है परंतु समाज को इससे क्या दिशा मिलेगी? काव्य-बिम्ब कौन-से अप्रस्तुत प्रकट कर रहे हैं? क्या समाज ऐसे दृश्यों को स्वीकार सकता है कि किसी लड़की का कई लड़के पीछा करें, उस पर झुकें, उसे चूमें? ‘रात’ कविता में वे केन नदी की जाँघ ढके जाने का बिम्ब खींचते हैं तो ‘एक खिले फूल ने’ कविता में उन्हें एक “झाड़ी का फूल” ओठ से काटता है और वे अचेत रहे धूप में! ये छवियाँ सिद्ध करती हैं कि वे प्रेम के सौन्दर्यमय स्वरूप से उन्मादित हैं और उनके हृदय में असीम प्रेम है। दरअसल उनकी कविताएँ सहज मानवीय मनोभावों की अलग-अलग दशाओं का कुशलता से चित्रण करती हैं। मूलतः उनमें पुरुष वर्चस्व नहीं, सहचर का भाव है। निराला की कविता ‘जुही की कली’5 की तरह पवन जैसा कोई व्यक्ति यहाँ सोई स्त्री के गोरे गोल कपोलों को मसलता नहीं है! स्त्री-गरिमा एवं उसके मानवाधिकार का केदार को बोध है। यह बोध उन्हें अपने युग एवं व्यवसाय से प्राप्त हुआ। ‘आज नदी बिलकुल उदास थी’ कविता देखिए-
आज नदी बिलकुल उदास थी
सोयी थी अपने पानी में
उसके दर्पण पर,
बादल का वस्त्र पड़ा था।
मैंने उसको नहीं जगाया
दबे पाँव घर वापस आया।6
जरा गौर करें सोते हुए देखकर जगाया नहीं। यह समर्पण-परिपक्वता की एक मंजिल है। इसे बहुत से लोग पा लेंगे। विशेष है बिना शोरगुल किए ‘दबे पाँव घर वापस लौटना’। यही विचार कविता को मूल्यवान बनाता है। “आज का आदमी होता तो नदी को सोते देख ‘दबे पाँव घर वापस’ आने की बजाय उस पर टूट पड़ने का इंतज़ाम करता। बलात्कार के दौरान उसकी नींद न टूट जाए, इसके लिए उस पर बेहोशी की दवा छिड़क देता। नदी को जीत लेने के बेशर्म गर्व से भर जाता। ऐसे ‘गर्व-भरे मदमाते’ तथाकथित प्रेमियों की आज कोई कमी नहीं।”7 प्रकृति-प्रेम-सामाजिक भाव की सुन्दर कविता!
प्रकृति-प्रेम के संश्लिष्ट रूप के इतर स्वच्छंद प्रेम के गीत भी केदार की उपलब्धि हैं। ‘माँझी न बजाओ बंशी’ गीत में वैयक्तिक मन के रागात्मक भाव क्रमिक रूप में अभिव्यक्त हुए हैं। इन रागात्मक भावों की इकाई है प्रेम जो कवि की आत्मपरकता से जुड़ा है। आत्मपरकता अनुभव के धरातल पर निजी है पर कविता में बिंधाकर सामाजिक बन गयी है। गीत में माँझी से अनुनय है कि बंशी न बजाओ। प्रेमाग्रह को टालना है, क्योंकि मन डोलता है। वह भी असाधारण ढंग से जैसे जल में जहाज डोलता है। डूबने की संभावना है! उससे बचना चाहता है! पुनः अनुनय, बंशी न बजाओ ‘प्रण’ टूटता है। प्रण अर्थात संकल्प। कौन-सा संकल्प? प्रण का टूटना भी असाधारण, तृण की तरह प्राकृतिक और स्वाभाविक! इतने अनुनय पर भी बंशी की धुन का स्वर अमंद! परिणाम ‘दोनों का तन एक बन झूमता है’! एक बनकर झूमने का अर्थ समझे? इसमें सहज समर्पण का भाव है, एकात्मकता है, स्वछंदता है, सहयोग है और है दोनों की ट्यूनिंग। इसमें माँसलता नहीं, उच्छृंखलता नहीं, मात्र संकेत ही प्रभावोत्पादक। सामाजिकता का अतिक्रमण नहीं है इसमें। पाठक डूब जाता है और आनंदित-प्रफुल्लित झूमता-सा है! कवि की आत्मपरकता एक वस्तुनिष्ठ भाव में रूपांतरित हो मानववादी बन गई। प्रेम का यही स्वरूप देशकाल की सीमाओं का अतिक्रमण करने में सक्षम होता है।
माँझी की बंशी से तीन चीजें घटीं ‘मन डोला’, ‘प्रण टूटा’ और ‘तन झूमा’ इनमें क्रमबद्धता है, तारतम्यता है और है कार्य-कारण संबंध। ‘टूटे न तार तने जीवन-सितार’ कविता भी कुछ इसी तर्ज पर कवि-कामना को अभिव्यक्ति है। कवि सजग है तभी जीवन रूपी सितार के तार ऐसे तने-बजे चाहता है जिससे ‘युग का अँधेरा’ लज्जित हो जाए एवं प्रेम के उपवन में बसंत छाया रहे। कविता में भविष्य का स्पष्ट स्वप्न है और वर्तमान पर गहन टिप्पणी भी। केदार की समझ और सजगता ने प्रेम जैसे भाववादी विषय को वस्तुनिष्ठ ढंग से अभिव्यक्त किया। दरअसल वस्तुनिष्ठता उनकी कविता का स्वभाव है। इस वस्तुनिष्ठता को उभारती एक ओर कविता है ‘प्रेम ने छुआ’। इसमें जीवन-जगत से प्रेम के संबंध व उसकी भूमिका को केदार सहज ढंग से अभिव्यक्त करते हुए लिखते हैं-
प्रेम ने छुआ
जानवर से आदमी हुआ
पथराया दिल
कुमुद हुआ
सूर्य की आग
वरदानी हुई
भूमि की देह धानी हुई8
प्रेम पत्थर (कठोर) दिल से कुमुद की तरह कोमल तथा जानवर से आदमी में बदलने की शक्ति रखता है। ऐसा कहकर केदार प्रेम को मानवीय मूल्य के रूप में परिभाषित/स्थापित करते हैं।
केदार दाम्पत्य प्रेम के अमर कवि हैं। दाम्पत्य की एक सामजिक भूमिका होती है। स्त्री-पुरुष दोनों अपनी निजता को सुरक्षित रखते हुए अपने हिस्से का अवदान देते हैं। यह निजता व्यक्ति की आत्मपरकता से संबद्ध है इसलिए दायित्वबोध व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। अक्सर देखा गया है कि स्त्री को ज्यादा समझौते करने पड़ते हैं जिससे उसकी निजता या कहें आत्मपरकता प्रभावित होती है। केदार इसके प्रति सजग हैं उनकी कविता दाम्पत्य-जीवन के अनुराग को बनाए रखने की हामी है। यदि व्यक्ति का दाम्पत्य जीवन संकटग्रस्त होगा तो दो व्यक्तियों के साथ परिवार और परिवार से भावी संततियाँ प्रभावित होती हैं। इसलिए दाम्पत्य जीवन में प्रेम के बने रहने की महती भूमिका है। दाम्पत्य जीवन का अनुराग प्रेरक होता है; संघर्षरत व्यक्ति को संबल देता है। वैचारिक एवं भावात्मक दोनों स्तरों पर वह अनुप्रेरक है। दाम्पत्य में आपसी समझ स्त्री-पुरुष को निकट लाती है। निकटता हेतु स्वस्थ संवाद आवश्यक है, आवश्यक है एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना। इस दृष्टि से ‘हे मेरी तुम’ संकलन केदार के दाम्पत्य-प्रेम का आईना है। इसमें उनका हृदय प्रतिबिंबित हुआ है। वे संवादी भूमिका में हैं और अपनी पत्नी को परंपरागत अर्थों वाली ‘पत्नी’ की भूमिका में नहीं देखते। उनका नवीन दृष्टिकोण उन्हें दूसरों से अलगाता है। ‘प्रिया’ से ‘प्रिया-प्रियम्वद-पार्वती’ तक के संबोधन की यात्रा से उनके प्रेम की आँच के बढ़ने और उसकी परिपक्वता व गहनता को समझा जा सकता है। दाम्पत्य जीवन के आरंभ में ही उन्होंने अपनी भूमिका स्पष्ट कर दी और लिखा- “गया ब्याह में युवती लाने, प्रेम ब्याह कर संग में लाया”।9 ऐसी स्पष्टता बहुत कम कवियों में मिलेगी।
‘हे मेरी तुम’ संग्रह की कविताओं में केदार ‘प्रिया’ के समक्ष हृदय के भावों-अनुभावों को बिना लाग-लपेट व्यक्त करते हैं। कविताएँ संवादधर्मी हैं और उनकी संवेदना के तंतु बहुरंगी। निजता एवं सामाजिकता इसके मुख्य सिरे हैं। इनके मध्य उनकी इच्छाएँ, अभिलाषाएँ, भावनाएँ, चिंताएँ, विचार, आशा-निराशाएँ, पारिवारिक दायित्वबोध, आत्मसंघर्ष, मँहगाई-बेरोजगारी का दुःख, प्रकृति-प्रेम, पर्यावरणीय चेतना कुशलता के साथ उभरी हैं। संवादात्मक शैली में साधारण ढंग से कवि जीवन की सच्चाईयों को प्रिया से साझा करते हुए पाठक की चेतना को परिष्कृत करता है। एक और एक से हम का बोध उसकी सामाजिकता का द्योतक है। उन्हें अहसास है कि उसके “हाथ बुढायें” हैं अर्थात बूढ़े होने लगे हैं और उसे “यम का बसूला” भी दिखने लगा है। परंतु प्रिया से संवादधर्मिता उनके “उन्मादी यौवन की सोयी-खोई सुधियाँ महका” देती है। संवाद अवस्था से पैदा हुई जड़ता को तोड़ता है। उसका संवेदनशील हृदय इन कविताओं में उमड़ पड़ा है। वह स्व से इतर प्रकृति एवं परिवेश के प्रति जागरूक नजर आता है। पेड़ हो या चिड़िया, व्यक्ति हो या प्राणी सभी के प्रति संवेदनशील हैं वे। संकलन की प्रथम कविता ‘चिडीमार ने चिड़िया मारी’ उसके संवेदनशील रूप को अनायास प्रत्यक्ष करती है। केदार की भावुकता, करुणा एवं अहिंसक सोच इसमें उभरी है। ‘प्यारी चिड़िया’ की तड़प से केदार ही नहीं, वहाँ का पूरा परिवेश जैसे सिहर गया है! वे प्रिया से अपनी तड़प को जाहिर करते हैं-
हे मेरी तुम!
सहम गई पौधों की सेना;
पाहन-पाथर हुए उदास;
हवा हायकर
ठिठकी ठहरी
पीली पड़ी धूप की देही।10
उनके साथ पूरी प्रकृति सहमी-उदास थी। कवि सृष्टा होता है इस बात से केदार बाखबर हैं इसलिए चिड़िया वास्तविक जगत में तो मर गई; कवि-हृदय में जी उठी! उसने कवि की संज्ञानात्मक प्रक्रिया से होते हुए उसकी फैंटेसी में उछल-कूद की और वहाँ से उसके काव्य-संसार में सदा-सदा के लिए अमर हुई। उसका यह जीवन संवेदना का प्रसारक है। वह अमर हुई ठीक आदिकवि वाल्मीकि के क्रौंच युगल की मानिंद! तब क्या प्रेम, करुणा और अहिंसा की भूमि पर रची केदार की कविता मर सकती है?
चिड़िया को मारना ही नहीं पेड़-पौधों को काटना भी उन्हें विचलित करता है। ‘हरी बिछली घास’ सभी को पसंद नहीं आती! केदार कृत्रिमता के नहीं नैसर्गिकता के प्रेमी हैं। काट-छांट कृत्रिमता की पोषक है, व्यक्तित्व को खास फ्रेम में ढालती है। उनकी कविताएँ ऐसी अनुभूतियों की गवाह हैं। जीवन के ऐसे मर्माहत प्रसंग व्यक्ति अपने निकट के या आत्मज व्यक्ति से साझा करता है। केदार की आत्मजा उनकी प्रिया हैं। वे उन्हीं से अपनी पीड़ा को साझा करते हैं और लिखते हैं-
माली, कैंची लिये
कतरता है गुलाब की डालें,
डालें नहीं-
कतरता है जैसे मेरी बाहें;
मैं भरता हूँ आहें।11
पौधे की डालों को अपनी कटी ‘बाहों’ सा महसूसना परपीड़ा की अनुभूति है। यहाँ वे मानवता के पक्षकार बनकर उभरे हैं। प्रकृति के प्रति ऐसी दृष्टि के विकास में निश्चय ही परंपरागत भारतीय दृष्टिकोण सहायक बना। आधुनिक युग में जगदीशचंद्र बसु जैसे वैज्ञानिक ने अपने परीक्षणों से यह साबित किया कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है; इसके प्रभाव से भी इंकार नहीं कर सकते क्योंकि केदार विज्ञान के प्रति भी सजग थे। हालाँकि यहाँ वैज्ञानिक सजगता से अधिक महत्वपूर्ण है उनका ‘आहें भरना’ अर्थात संवेदनशील मन। बहरहाल।
जीवन में नाना व्यापार एक साथ सक्रिय रहते हैं। कवि-चेतना प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से उनसे पोषण लेती है। केदार सामाजिक प्राणी है और कल्पनाजीवी नहीं तो यथार्थजगत का परिवर्तन उन्हें उद्वेलित करता है; ऋतुएँ उन्हें प्रभावित करती हैं; अदालती अनुभव उनकी दृष्टि को पैनाते हैं। अनुभव उनकी अनुभूति रचते हैं यही अनुभूतियाँ प्रिया से होते हुए कविताओं में दर्ज हुई हैं। एक खास तरह का मौलिक शिल्प केदार ने विकसित किया जिसने उनकी कविताओं को अनूठा बनाया। “हे मेरी तुम!” पंक्ति के तुरंत बाद लगा विस्मयादिबोधक चिन्ह (!) उनके प्रेम का चिन्ह है; उनकी भावनाओं का प्रतिबिम्ब है। इसे उपेक्षित करके प्रिया से संवाद करते समय की उनकी अनुभूतियों को महसूस नहीं किया जा सकता। इन अनुभूतियों को व्यक्त करते समय वे प्रिया के सखा एवं सजग कवि के रूप में नजर आते हैं। एक बानगी देखिए-
सब चलता है
लोकतंत्र में
चाकू-जूता-मुक्का-मूसल
और बहाना12
निश्चय ही ये पंक्तियाँ लोकतंत्र की सीमाओं को उजागर करती हैं परंतु क्या वर्तमान भारत की विषम स्थितियों का ये पंक्तियाँ सटीक चित्रण करती हैं? निश्चय ही नहीं! इन पंक्तियों में कवि-चिंता भी शामिल समझिए। दिन-प्रतिदिन के अनुभव से उसकी दृष्टि विकसित हुई। एक समय ऐसा भी आया जब उन्होंने समय को ‘मदारी’ रूप में देखा। समझना कठिन नहीं कि ऐसी स्थिति में उनके समक्ष व्यक्ति की क्या भूमिका रही होगी। वे अदालत में रोज देखते हैं, न्याय अन्याय को हरा नहीं पाता। “जबरजंग हो गया है झूठ” पंक्ति में इसी व्यथा को वाणी मिली। ये स्थितियाँ निराशा जनती हैं। निराशा के भाव को कवि प्रिया से साझा करता है-
चाल-चलन में – जीवन में
सच,
अब तक अब तक
उभर न पाया;
नय से अनय न हारा,
खोज न पाया जग ध्रुवतारा।13
‘अब तक अब तक’ में मोहभंग-निराशा की अनुगूँज है, बैचेनी है। ऐसी कविताओं में समकालीन बोध दर्ज है। इन कविताओं में जीवन की आपाधापी और संघर्ष के चित्र उभरे हैं। कवि ‘महंगाई’ से परेशान दिखता है क्योंकि उसने लोगों की तरह “गोरखधंधे” नहीं किये। कि उसने “गठरी चोरों की दुनिया में / गठरी नहीं चुरायी”। संचय करने में उसने अनैतिक हथकंडे नहीं अपनाए।
उम्र का एक लंबा पड़ाव तय करने के बाद यह स्वाभाविक है कि व्यक्ति अपना मूल्यांकन करे। इस मूल्यांकन में तटस्थता जरुरी है। तटस्थता से व्यक्ति के साथ उसके समय का मूल्यांकन स्वतः हो जाता है। केदार अपनी कविताओं में यही कर रहे हैं। इससे एक ओर उनके दांपत्य जीवन की प्रगाढ़ता उभरती है तो दूसरी ओर उनका व्यक्तित्व। चूँकि व्यक्ति समाज की इकाई है इसलिए व्यक्ति का निर्दोष निरीक्षण समाज का सच भी बयां करता है। आयु बढ़ने के साथ विचारों में प्रौढ़ता आती है। केदार इसके अपवाद नहीं। “डंकमार संसार न बदला”; “शासन बदला, देश न बदला”; “भावबोध-उन्मेष न बदला” जैसी पंक्तियाँ उनके मलाल को इंगित करती हैं तो “प्यार न बदला”; “प्रथम प्यार का ज्वार न बदला”; “मिलनातुर सहकार न बदला” और “मधुदानी व्यवहार न बदला” जैसी पंक्तियाँ उनके हृदय की प्रेमानुभुतियों के न बदलने को प्रत्यक्ष करती हैं। समझना यह है कि भौतिक जगत में परिवर्तन की गति व्यक्ति के बौद्धिक परिवर्तन से तेज होती है। जबकि व्यक्ति के मानस (अंतश्चेतना) परिवर्तन की गति सबसे धीमी होती है। उपर्युक्त पंक्तियाँ परिवर्तन से अधिक विसंगति की ओर ध्यानाकर्षित करती हैं। अर्थात प्रेम के स्वरूप का न बदलना स्वाभाविक स्थिति है जबकि संसार-शासन-भावबोध का न बदलना विडंबनापूर्ण है, विसंगति है। पंक्तियों का ऐसा संयोजन कविता की व्यंजना-शक्ति में वृद्धि करता है।
केदार की कविता “जीवन की जय जीत मनाने” का स्वप्न रचती है। वे अपनी प्रिया से प्रकृति की सुषमा एवं सौन्दर्य की चर्चा भी जहाँ-तहाँ करते हैं। प्रकृति उन्हें संबल-हर्षोल्लास देती है, जिससे वे प्रफुल्लित होते हैं। धूप उन्हें नदी में चाँदी की तरह तैरती दिखती है तो दिन गोरा चिट्टा। उजाले के लिए तो वे अद्भुत बिम्ब रचते हैं; उजाला जैसे बछड़ा पुष्ट धूप में निखरा हो। ‘लाल गुलाब’ उन्हें बिना बोले ऐसा बोलता है कि उनके हृदय में “प्रमुदित सुमन-सितार बजा”। उसे प्रतीत हुआ जैसे दिग-दिगंत में प्रेम की पुकार गूँज उठी। उनके साक्षात्कारों में पुष्टि होती है कि प्रकृति का यह रूप-वर्णन उनके मनोभावों को उनकी प्रिया तक पहुँचाने में सहायक सिद्ध हुआ। इससे उनके प्राणों में नवरस का संचार हुआ। प्रकृति के इस सौंदर्यमयी रूप के आप भी दर्शन कीजिए-
मैंने देखा:
कली-कली-दिल खुला
पेड़ का;
पंखुरियाँ मुसकायी
रूप-गंध भर लायीं।
- - - - - - - - - -
किरन-किरन ने
मुँह गुलाब का चूमा
जैसे तुमने मुझको-
मैंने तुमको चूमा।14
प्रकृति उत्प्रेरक भूमिका में है। इससे दाम्पत्य जीवन में रस-रंग पैदा हुआ और प्रेमानुराग गहराया। उनके “उन्मादी यौवन की / सोयी-खोई सुधियाँ महकने” लगीं। अवस्था के निमित्त जीवन में आई जड़ता टूटी। मन में उजास भरी। जीवन में सजीवता-जीवंतता आई जो “दीन-देह को / प्यार-प्यार से बाँधे” हुए है। इस बंधने से साहस मिला जो मौत से मुकाबले के लिए “कमर कसने” को प्रेरित करता है। उसमें मृत्यु को ललकारने का भाव जगता है, परिणामतः जीव रूपी “मछली” को फँसाए बिना ही मृत्यु चली गई। मृत्यु का जाना काल को हारने के समान है।
स्पष्ट है प्रेम और प्रकृति दोनों उनकी कविता में प्रेरक भूमिका में हैं। उन्हें ‘कचहरी’ के सामने फैला सेमल का पुरनिया पेड़ लाल-लाल फूली “आग” जमीन पर टपकाता क्रांति का सन्देश देता प्रतीत हुआ तो पेड़ की तपस्या भंग करते कोए भी दिखे। उसकी दृष्टि पेड़ के नीचे ‘उकडूँ बैठे विपन्न आदमी’ पर ठहरी। उसके प्रति उन्हें सहानुभूति है तभी उसे ‘जेठ की गर्मी’ “इमरजेंसी” के अत्याचार-सी स्मृत हुई। एक कविता में वे मानते हैं कि “ठठरियाये पेड़” आदमी के “आदिम वनस्पतीय अग्रज” हैं। इससे उनके सामाजिक-सांस्कृतिक बोध को समझा जा सकता है। “नाजुक दूब” उसमें आशा का संचार करती है। उसे बादल-धूप-घाम-धरती आदि नवांकुरित दूब के अभिभावक रूप में उपस्थित दिखे। सम्पूर्ण प्रकृति ने उसे गरम-गरम छाती का दूध पिलाकर जिलाया-बढ़ाया है। पारिस्थितिकी तंत्र के बिखरे अवयव कविता में एक पारिवारिक इकाई के रूप में गुंथे दिखते हैं। सभी की चर्चा प्रिया से होते हुए कविता में व्यक्त हुई और पाठक की चेतना का हिस्सा हुई। उसकी संवेदना बहुआयामी-बहुमुखी है, दिशाओं की तरह। उपर्युक्त ‘नाजुक दूब’ कविता में अनुभव से गुजरते हुए प्रेममय कवि-हृदय में अपने यौवन की स्मृतियाँ कौंधे तो आश्चर्य कैसा? प्रेम की गहराई को आप भी अनुभव कीजिए-
याद करो—कुछ ऐसा ही था
प्रथम-दृष्टि का प्रेम हमारा और तुम्हारा
नन्हा नाजुक नयी दूब-सा प्यारा।15
प्रथम दृष्टि के प्रेम की स्मृति प्रौढावस्था-बुढ़ापे में उभारना व उस अनुभूति को प्रिया से साझा भी करना; उसे पुनः जीना उनके प्रेम में वृद्धि करेगा या नहीं? इससे निकटता बढ़ेगी या घटेगी? निश्चय ही इसका उत्तर सकारात्मक होगा। उनके जीवन एवं उनकी कविताओं के अध्ययन से स्पष्ट है कि प्रथम दृष्टि का प्रेम जीवन-पर्यंत पल्लवित-पुष्पित होता रहा। जब कभी “कटु यथार्थ से लड़ते-लड़ते” या “अपना डोंगा खेते-खेते” केदार के हाथ शिथिल हुए तो “लड़खड़ाते हाड़ों के ढाँचे” को प्रिया की मुस्कान ताकत से भर गई और उसके जीवन में उल्लास का नवसंचार हुआ। प्रेम की प्रगाढ़ता ही है कि पत्नी से विनय करते हैं केदार, आदेश नहीं पारित करते। इसमें अधिकार नहीं सहयोग का भाव है। कोई चाहे तो इसे समर्पित होना भी कह सकता है। लिखते हैं-
अब तुम ही थोड़ा मुसका दो
जीने का उल्लास जगा दो।16
इन पंक्तियों में ‘तुम ही’ पद पर गौर करें। यह पद केदार ने क्यों प्रयुक्त किया? प्रिया की प्रेरक भूमिका यहाँ उजागर नहीं होती? उपर्युक्त पंक्तियों से यह भी स्पष्ट होता है कि दाम्पत्य-प्रेम में “जीने का उल्लास” जगाने की शक्ति है। केदार की कविता शमशेर की तरह काल से होड़ लेती है, उसकी प्रतिद्वंद्वी है। उनकी कविताएँ एक सैनिक की तरह उसे ललकार रहीं है। क्यों? क्योंकि कवि कविता की शक्ति से परिचित है और अपनी प्रिया की अमरता चाहता है। काल की क्रूर दृष्टि प्रेम की इस शक्ति के समक्ष निष्प्रभावी है। यही शक्ति दोनों को हास-परिहास की प्रेरणा देती है और उनका “एक-दूसरे को निहारकर / जीने का अभ्यास” निरंतर जारी है। उसके लिए प्रिया का मुख “सुख का मुख” है। प्रिया की ‘उदासी’ उसे बैचेन करती है। इस प्रेम में माधुर्य है, एकनिष्ठता है, समर्पण है, संकल्प है, प्रेरणा है, सत्यं-शिवं-सुन्दरं है और है काल कलूटे से लड़ने की शक्ति। प्रेम का यह स्वरूप सामाजिक दृष्टि से प्रेरणादायी है, वर्तमान समय में तो विशेषकर। लिखते हैं-
काल कलूटा बड़ा क्रूर है।
उसका चाकू और क्रूर है-
उससे ज्यादा
लेकिन अपना प्रेम प्रबल है।
हम जीतेंगे काल क्रूर को;
उसका चाक़ू हम तोड़ेंगे;
और जियेंगे;
सुख-दुख दोनों
साथ पियेंगे;
काल-क्रूर से नहीं डरेंगे-
नहीं डरेंगे-
नहीं डरेंगे।17
प्रेम भयमुक्त बनाता है और अभय देता है। इस भाव के साथ उपर्युक्त पंक्तियाँ कवि की निष्ठा और विश्वास को उजागर करती हैं। वह अपने साथ प्रिया में भी विश्वास जागृत करता है। प्रेम इसीलिए सामाजिक होता है। पूँजी से जुड़े हृदय इसके अपवाद हैं। यह जो एकनिष्ठता और समर्पण का भाव केदार की कविता में उभरता है यह उनके दाम्पत्य-प्रेम को संजीवनी देता है। प्रेम का यह स्वरुप अनुकरणीय है। विवाह एक सामाजिक संस्कार है जिसमें अनेक बंधन स्वतः जुड़े होते हैं। परंतु केदार का दाम्पत्य-जीवन इसका अपवाद है। उनका दाम्पत्य-प्रेम अपनी परिधि में भी स्वच्छंदता लिए है। इसमें पितृसत्ता का दखल नहीं है; ना ही पुरुष-वर्चस्व की अभिव्यक्ति। स्त्री-हीनता या पुरुष-दंभ का बोध उनकी कविताओं में नहीं है। है तो साहचर्य का सुख, समानता का भाव, एक-दूसरे के प्रति गहरी निष्ठा-समर्पण। ऐसा प्रतीत होता है कि केदार और उनकी प्रिया ‘एक-दूजे के लिए’ बने हैं। उनके प्रेम में जीवन का मधुमास है, उमंग है, उल्लास है, आनंद है। उनका प्रेम एक उत्सव है जिसे उन्होंने प्रतिदिन जिया। इसी जीवन में उनके नेह का नीर सरसता-हरसता बहा। “फूल तुम्हारे लिए खिला है” कविता की निम्न पंक्तियाँ इस संदर्भ में दृष्टव्य हैं-
इसे देखकर चूमो,
चूम-चूमकर झूमो;
झूम-झूम कर नाचो-गाओ;
कुटिल काल देखे
मुँह बाये,
मुग्ध-मगन हो जाये
नेह-नीर हो बरसे-हरसे
जड़ हो चेतन
चेतन हो
जीवन की धारा
धारा काटे निठुर कगारा;
मानव को मानव हो प्यारा;
जग हो फूल गुलाब हमारा।18
जड़ को चेतन बनाने की कामना और चेतन को जीवन-धारा से जोड़कर निष्ठुर किनारों को तोड़ने का उद्देश्य उनकी मानववादी-समतावादी-लोकहितकारी दृष्टि का परिचायक है। उनकी कविता का स्पष्ट सन्देश है संसार सौंदर्यमय हो। विडम्बनाएँ-विसंगतियाँ सौन्दर्य नहीं रचतीं। समाज में फैली नफरती भावनाएँ और असमानता जीवन को कुरूप बनाती हैं। केदार इससे भिज्ञ थे। इसीलिए उनका प्रेम वैयक्तिक परिधि को लाँघकर लोकमंगल की भावना से अनुप्रेरित है। सुन्दर भविष्य का स्वप्न आत्म से शिवं की ओर उन्मुख है। यही केदार की कविता का सार-तत्व है।
एक समय ऐसा भी आया जब उनकी पत्नी पार्वती देवी को वृद्धावस्था में अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। यह ऐसा समय था जब केदार आशा-निराशा, सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु के दोनों छोरों के मध्य संघर्ष कर रहे थे और “दारुण, दाही, एक-एक दिन-रात” काट रहे थे। एक ओर पत्नी का पीला मुख दूसरी ओर जीवन की वास्तविकता। दोनों को आधार बनाकर उन्होंने अनेक कविताएँ हिन्दी साहित्य को दीं। उनका रचनाकार व्यक्तित्व बैचेन हो उठा, काल से होड़ लेने को। कई दिनों बाद ‘प्रिया पोपले मुख से मुस्काई’ तो ‘हर्ष-हर्ष से उनका अस्तित्व फूल उठा और वे निहाल हो गए’। प्रिय का मौन उसके बीते प्रेम की स्मृति जगाता है। वे कह उठते हैं कि “इतना सच है प्यार हमारा जितना सच है महाकाल से बचा अमर ध्रुव-तारा” और “इतना प्रिय है प्यार हमारा जितना प्रिय है गिरे मनुज को देना प्राण-सहारा”। ये पंक्तियाँ साक्षी हैं कि केदार सजग कवि हैं। इतने भावुक क्षणों में भी “गिरे मनुज” को उठाने की बात करना, प्रेम-प्रतिष्ठा ही है। ‘उठो’ कविता की पंक्ति “जियो, और जीने का वर दो” में भी सकारात्मक संदेश निहित है। ये ‘प्रेरक कविताएँ’ हैं जो ‘कोविड-१९’ के समय में प्रासंगिक हो उठी हैं। ऐसे अनेक दृश्य इस दौरान जी उठे जो केदार भोग रहे थे।
केदार की पत्नी पार्वती देवी का लंबी बीमारी के बाद मद्रास के विजय अस्पताल में 28 जनवरी, 1986 को शाम सवा छः बजे निधन हुआ। इससे उनके जीवन में अकेलापन और उदासी बढ़ी। छप्पन वर्ष का साथ कोई कम नहीं होता। इसका टूटना मनोदशा को प्रभावित करेगा ही। इस बदली हुई मनोस्थिति का प्रभाव आत्मगंध काव्य-संग्रह की कुछ कविताओं में उभरता है। ये कविताएँ उनके हृदय की स्थिति को प्रकट करती हैं। इनमें केदार का एकाकी जीवन है और हैं पूर्व जीवन की स्मृतियाँ। ये स्मृतियाँ रह-रहकर उभरती हैं। इनमें प्रिया की “आत्मगंध” रची-बसी है। प्रेम की कोमल भावनाएँ नक्शबंद हैं। इनमें उनकी ‘प्रिया-प्रियम्बद पार्वती! जरा-मरण को पार कर गयीं और कविता बनकर प्यार भर गयीं’ जिनका प्यार ‘प्रिया के संस्पर्श से उद्दीप्त हो, अब भी पोर-पोर में कुसुमित है’। इनमें प्रेम की एकनिष्ठता; आत्मीय गहराई अनूठे रूप में उभरी है। तन्मयता का भाव, अद्वैत से द्वैत की यात्रा उनके प्रेम को एक दार्शनिक ऊंचाई पर प्रतिष्ठित करती है। प्रेम की नई मंजिल पर। कवि के अकेलेपन में भी प्रिया के प्रेम की प्रेरक भूमिका कम नहीं हुई है। वह कर्त्तव्य-पथ से उसे विचलित नहीं होने देता। उसके लिए “प्रेम सघन सक्रियता है” और उसे “कर्त्तव्य में लगाये” हुए है। सघनता और कर्तव्यबोध प्रेम की सात्विकता व दायित्वबोध के कारक बने हैं। उसकी स्मृतियों में प्रिया का ‘साकार’ रूप बार-बार उभरता है जो उसकी स्थिति को इंगित करता है। “तुम अदृश्य से आ जाती हो, दृश्यमान हो, मुस्काती हो, पुष्प-गंध-सी छा जाती हो” इस साकार रूप में प्रिया ‘घरेलू’ स्त्री के रूप में भी उभरती हैं। इन आत्मोन्मुखी कविताओं के चित्र आप भी देखें-
देख रहा हूँ मैं तो तुमको
अंतर्मन में;
तुलसीकृत रामायण पढ़ते,
उठकर, चलकर,
तुलसीथाले के समीप जा,
‘तुलसीजी’ की पूजा करते,
भक्ति-भाव से,
विनय-प्रार्थना में
श्रद्धा से झुकते;
दुनिया के दुःख-दंश का विष हारते19
“चेतना मेरी जिलाये है तुम्हें” कविता की निम्न पंक्तियाँ भी देखें-
चेतना मेरी जिलाये है तुम्हें
पास, तुम, बैठी हुई हो
मैं मगनमन देखता हूँ;
केश लम्बे कुंडलित हैं—
माँग में सेन्दुर अभय है—
माथ में अरुणाभ टीका दमदमाता—
नाचता है
बड़ी आँखों में उजाला
आन्तरिक आह्लाद से उत्फुल्ल—
राग-रंजित मंद मुसकाते अधर
जग जीतते हैं—20
प्रिया की स्मृतियाँ कवि-चेतना से “दिग्विजयिनी चेतना की काम्य कविता” में परिणत हो काल को ललकारती हैं और कुटिल काल “भवे ताने / क्षुब्ध मन से” कुंठित-कुपित है। कवि-चेतना में बसी “प्रिया-प्रियम्बद-पार्वती” दिवास्वप्न हो या स्वप्न दोनों में बार-बार साक्षात होती हैं।
स्वप्न में सामीप्य पाता हूँ तुम्हारा,
एक होकर
फिर न रहता थका-हारा
द्वैतदर्शन अब नहीं मुझको सताता,
बस,
मुझे अद्वैतदर्शन है सुहाता21
“तुम अदृश्य से आ जाती हो”, “याद आई”, “छत से लटका”, “तुम आईं”, “सुबह हुई”, “स्वप्न में समीप्य पाता हूँ तुम्हारा”, “महाकाल बरजोर!”, “तुम अदेह भी”, “क्यों रोऊँ मैं” आदि कविताएँ मनोवैज्ञानिक एवं दार्शनिक दृष्टि से भी उनके दाम्पत्य अनुराग को उभारती हैं। छप्पन वर्ष के साथ और सिंधु अनुराग के बाद जग का मेला फीका लगना स्वाभाविक ही कहा जाएगा। केदार के लिए प्रेम मानवीय मूल्य है जो उनकी कविताओं के माध्यम से समाज को सदैव प्रेरित करता रहेगा। ये कविताएँ समाज को दायित्वबोध के प्रति सजग बनाती रहेंगी और बताती रहेंगी कि वैयक्तिक जीवन को जीते हुए भी सामाजिक हस्तक्षेप किया जा सकता है। ये कविताएँ प्रकृति और स्त्री के प्रति सही समझ विकसित करने में नए आदमी की मददगार साबित होंगी, देश-काल की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए।
संदर्भ ग्रंथ सूची:
चिंतामणि भाग-१, रामचंद्र शुक्ल, मालिक एण्ड कम्पनी, जयपुर, प्रथम संस्करण-२००४, पृष्ठ-५३-५४
फूल नहीं, रंग बोलते हैं; केदारनाथ अग्रवाल; परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद, तीसरा संस्करण-१९८३, पृष्ठ-१९
आधुनिक कवि-१६, केदारनाथ अग्रवाल, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, पथम संस्करण-१९७८, पृष्ठ-६०
उपर्युक्त, पृष्ठ-४९
परिमल, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, गंगा पुस्तकमाला, लखनऊ, पृष्ठ-१९१
आधुनिक कवि-१६, उपर्युक्त, पृष्ठ-११४
केदारनाथ अग्रवाल:प्रतिनिधि कविताएँ, संपादक-द्वारिका प्रसाद चरुमित्र/शहाबुद्दीन, पीपुल्स पब्लिशिंग हॉउस, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-मई, २०११, पृष्ठ-८
आत्मगंध, केदारनाथ अग्रवाल; साहित्य भण्डार, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-२००९, पृष्ठ-२०७
संचियता : केदारनाथ अग्रवाल, संपादक-अशोक त्रिपाठी, महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा के लिए प्रकाशित, संस्करण-२०११, पृष्ठ-९८
हे मेरी तुम, केदारनाथ अग्रवाल, साहित्य भण्डार प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-२००९, पृष्ठ-१३
उपर्युक्त, पृष्ठ-५०
उपर्युक्त, पृष्ठ-१९
उपर्युक्त, पृष्ठ-२२
उपर्युक्त, पृष्ठ-४१
उपर्युक्त, पृष्ठ-६५
उपर्युक्त, पृष्ठ-६८
उपर्युक्त, पृष्ठ-१४
उपर्युक्त, पृष्ठ-१८
आत्मगंध, उपर्युक्त, पृष्ठ-३०
उपर्युक्त, पृष्ठ-६३
प्रभारी/सहायक आचार्य, हिन्दी
डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम शासकीय महाविद्यालय
संघप्रदेश दादरा एवं नगर हवेली, सिलवासा-396230
मोबाईल: 8128969321 ईमेल: shah2971983@gmail.com
Opinion Required 400 characters Limit