अंग्रेज़ी हटाओ, भारतीय भाषा बचाओ सम्मेलन भारतीय भाषा विज्ञान का गड़बड़

अंग्रेज़ीहटाओ, भारतीय भाषा बचाओसम्मेलन

भारतीयभाषा विज्ञान का गड़बड़

 

आजके इस महत्वपूर्ण सम्मेलन में भाग लेने आए विद्वानों का अभिनन्दन करता हूँ। मेरा सौभाग्यकि आयोजकों ने मुझे इस कार्यक्रम में शामिल होने के काबिल समझकर न्यौता। मेरा दुर्भाग्यहै कि मैं इस सम्मेलन में शरीक नहीं हो पा रहा हूँ निहायत ही व्यक्तिगत कारणों से।ट्रेन व्यवस्था लम्बे समय से भरोसेमंद नहीं रह गई है।

आजके सम्मेलन के शीर्षक के पहले हिस्से पर मैं टिप्पणी करूँ तो शायद कोई भी मुझसे सहमतहो। मैं व्यक्तिगत तौर पर अंग्रेज़ी का विरोध नहीं करता हूँ, मैं अंग्रेज़ी से घृणा करता हूँ। जब भी मैं यह वक्तव्य देता हूँ तो मुझे सीखमिलनी शुरू हो जाती है कि अंग्रेज़ी ज्ञान का द्वार है। ज़्यादातर ज्ञान-विज्ञान अंग्रेजी में ही उपलब्ध है। किसी भाषा से घृणा करना सही नजरिया नहींहै और यह सर्वथा अनुचित है। मैं मान सकता हूँ लेकिन अंग्रेज़ी एक ऐसी भाषा है जो आमभारतीय का हक़ मारती है। दूर-दराज़ के इलाक़ों में रहने वालेअपनी मातृभाषा में पढे़ लिखे विद्वानों को स्पर्धा से बाहर कर मुट्ठी भर लोगों के हाथमें सत्ता और ताक़त केन्द्रित करने की भाषा अंग्रेज़ी है। मैं भी ज्ञान अर्जित करनेके लिए अंग्रेज़ी की पुस्तकें पढ़ता हूँ लेकिन सोचता और लिखता हूँ तो मात्र हिंदी में।

अंग्रेज़ीको त्याग पाना बड़ा मुश्किल और हिम्मत की बात है। लोग मातृभाषा की बात करेंगे लेकिनजब बच्चों को पढ़ाने की बात आएगी तो अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में ही उन्हें भेजेंगे।मातृभाषा सिर्फ़ मंचीय और समितियों के बहस का मुद्दा रह गया है। अफ़लातून अफ़लू जीने परसों सम्मेलन का पोस्टर फेसबुक पर डाला तो उस पर बड़ी दिलचस्प टिप्पणियाँ पढ़नेको मिलीं। एक टिप्पणी ग़ौरतलब है, “ सर लेकिन हर जगह इंग्लिशकी माँग है और ज़रूरत भी, दूसरी भारत के हालत देखकर इंग्लिश औरभी ज़रूरी हो जाती है। बाक़ी आप की मर्ज़ी।यह सम्मेलन उस शहरमें हो रहा है जिस शहर में भारतेंदु हरिश्चन्द्र नाम का कोई साहित्यकार हुआ करता था।उसने लिखानिजभाषा उन्नति अहै, सब उन्नतिको मूल। भारतेंदु हरिश्चन्द्र यह कहते हुए क्या मूर्खता का परिचयदे रहे थे इस पर बहस हो सकती है। लेकिन आज की दुनिया में प्रगति कर रहे देशों पर नज़रडालें तो जिस देश चीन से हम सबसे ज्यादा ईर्ष्या करते हैं वहाँ प्रगति की भाषा मातृभाषाहै। जापान और दक्षिण कोरिया के विकास की भाषा उनकी मातृभाषाएँ हैं। पश्चिम के देशोंके प्रगति की भाषाएँ उनकी अपनी मातृभाषाएँ अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी,जर्मन आदि हैं। दुनिया के ग़रीब देशों की गिनती अगर करें तो उनमें उनदेशों की तादाद ज़्यादा होगी जो अंग्रेज़ी के माध्यम से विकास करने का प्रयास कर रहेहैं।

मेरायह वक्तव्य बड़ा रोमांटिक लग रहा होगा। लोग कहेंगे खाने के दाँत और दिखाने के दाँतऔर!तो मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैंने अपने बच्चों को हिंदी माध्यम को स्कूलोंमें ही पढ़ाया। परिवार के हर दबाव को दरकिनार करते हुए मैंने अपने बच्चों को अंग्रेज़ीमाध्यम के स्कूल-कॉलेज में भेजा ही नहीं। मेरे बच्चे आज सफल हैं।चूँकि मातृभाषा हिंदी में उनका आधार मज़बूत है तो वो विदेशी भाषा अंग्रेज़ी बड़ी आसानीसे सीख-समझ सके। मेरा बेटा हिंदी माध्यम से पढ़कर विदेश जाकरअंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई भी कर आया। सबसे बड़ी रोचक बात यह है कि बेटा नौकरी न करके हिंदी की सेवा में एक सफल व्यवसाय भी कर रहा है। बड़ी हिम्मत चाहिए ऐसा निर्णय करनेके लिए। आप कह लें घमंडी मुझे, मुझे गर्व है अपने पर और जब मैंमातृभाषा की बात करता हूँ तो मेरी आँख ऊँची होती हैं।

उसीपोस्ट पर एक टिप्पणी बड़ी आक्रामक है।हम साथ नहीं हैं।क्यूँकि हमारा माना है कि अब अंग्रेज़ी ग़ुलामी का प्रतीक न होकर पूरे विश्व को जोड़नेवाली भाषा मात्र है। अत: इससे घृणा करने का कोई मतलब नहीं।आगे टिप्पणी यह है, “मेरा यह भ्रम नहीं बल्कि निजीअनुभव है। मैं दक्षिण भारत गया था। वहाँ कोई हिंदी न बोलता है न समझता है। सिर्फ अंग्रेज़ीया स्थानीय भाषा।

विश्वको जोड़ने वाली भाषा के बारे में मैं बस इतना ही कहना चाहूँगा कि एक देश की भाषा मंडारिनसे सब आतंरिक हैं। यह बातें बड़ी पुरानी हो गईं कि फ्रांस-जर्मनी में कौन अंग्रेज़ी चलती है! मैं भारत के सम्पर्ककी भाषाओं की बात करना चाहूँगा। क़रीब अट्ठारह साल पहले पहली बार मैं तमिऴनाडु की यात्रापर गया। मुझे बताया गया हवाई अड्डे के बाहर त्रिशूलम् रेलवे स्टेशन से ट्रेन पकड़ करकॊट्टै स्टेशन जाना वहाँ से रुकने के लिए तय स्थान नज़दीक होगा। मैं परिवार के साथथा। कॊट्टै रेलवे स्टेशन पर उतरा और सोचा कि किसी से गन्तव्य का रास्ता पूछ लूँ। प्लेटफ़ॉर्मकी सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बग़ल में चल रहे एक सज्जन से मैंने अंग्रेज़ी में पूछा। उस सज्जनने मुझे उपर से नीचे तक देखा और हिंदी में पूछा क्या आप बनारस से आए हैं, आप बीएचयू में पढें हैं? मेरे चेहरे पर मेरे बनारसी होनेया बीएचयू का पढ़ा होने की कोई तख्ती नहीं लगी थी। उन्होंने मुझे पूरा पता-रास्ता हिंदी में बताया। चॆन्नै के कॊट्टै रेलवे स्टेशन पर अंग्रेज़ी में बोलनेके शर्म से मैं आजतक नहीं उबर पाया हूँ। मैं अपनी नौकरी के दौरान तबादले पर जहाँ भीगया तय किया कि अंग्रेज़ी का कम से कम इस्तेमाल करूँगा। बंगाल में रहा तो बांग्ला सीखाऔर इस्तेमाल किया।पहली और एकमात्र बार दक्षिण, कर्नाटक में मेरीतैनाती हुई तो पहले कन्नड़ सीखने की किताबें मँगवाईं। पोस्टिंग होने के बाद दफ़्तरके हिंदीभाषियों के लिए एक छ: हफ़्ते का कन्नड़ सीखने का कार्यक्रमचलवाया। टूटी-फूटी कन्नड़ सीखा। मेरे साथ दुर्भाग्य यह रहा किचूँकि मैं बंगाल या कर्नाटक में टूटी-फूटी बांग्ला या कन्नड़बोलता रहा तो मुझसे कार्यालय में कोई भी अंग्रेज़ी में बात नहीं करता था, सब हिंदी में बात करते थे। और इस तरह मैं न तो पूरी तरह से बांग्ला और न हीकन्नड़ ही सीख पाया। फिर भी मैं जब भी बंगाल और कर्नाटक के गाँवों में किसी कार्यक्रममें गया तो बांग्ला और कन्नड़ लिपि में टाइप किए हुए अपने भाषण पढ़ता। एक बार तो ग़ज़बहुआ। चिदम्बरम जी के जिले के एक गाँव के कार्यक्रम, जिसकी अध्यक्षताखुद चिदम्बरम जी कर रहे थे, में मुझे धन्यवाद भाषण देना था। मैंनेबीएचयू में रहते हुए तमिऴ में डिप्लोमा कर रखा था। उस कार्यक्रम में मैंने अपना तमिऴलिपि में टाइप किया हुआ भाषण पढ़ने लगा। मुझे जितनी तालियाँ मिलीं शायद चिदम्बरम जीको न मिली होंगी।

तोअंग्रेज़ी हटाने के लिए मेहनत और संकल्प की ज़रूरत पड़ेगी। भारत की दूसरी भाषाओं केप्रति हिंदी भाषियों के दिल में आदर होगा तभी अंग्रेज़ी हटेगी और हिंदी सम्पर्क कीभाषा बन सकेगी। हमारी यह अपेक्षा द्रविड़ भाषियों से रहती है कि वह टूटी-फूटी ही सही हिंदी बोलें। क्या हम कभी सोच सकते हैं कि हिंदी भाषी टूटी-फूटी है सही तमिऴ-तेलुगु-कन्नड़-मलयालम-तुऴु बोलें! हम बोलते हैंजब हिंदी फ़िल्मों मेंचमत्कारकोबलात्कारमें बदल देते हैं या किसी के भाषण मेंपलटकरकोबलात्कारकहकर हँसी उड़ाएँगे। यह क्रूर मज़ाक़ वही कर सकता है जो भारतीय भाषाओंके ध्वनि विज्ञान को नहीं समझता और न ही भारतीय भाषाओं की परस्परता को। अगर भारत सदियोंसे एक था और है तो इस प्रश्न का उत्तर अपने मन में खोजिए क्या भारतवासी, उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम के लोग आपस में सदियों से किस भाषा में आपस में बात करते थे। संस्कृततो कभी आम बोलचाल की भाषा नहीं रही। हिंदी तो अपने विकसित रूप में शायद ग्यारहवी सदीमें सम्पर्क के लिए तैयार हुई हो। उसके पहले तो हमारी मूल भाषाएँ यहाँ थीं। साक्ष्य-प्रमाण है कि द्रविड़ भाषाएँ इस भू-खंड की सबसे पुरानीभाषाएँ हैं। यहाँ अवधी, भोजपुरी, मैथिली,बिहारी हिंदी, राजस्थानी, हरियावाणवी, पंजाबी, मराठी आदिबहुत पहले से मौजूद थीं। तब क्या हम अंग्रेज़ी में सम्पर्क करते थे? कुतर्क है अंग्रेज़ी को सम्पर्क की भाषा मानना।           

अंग्रेजीहटाना बहुत आसान है, हिंदी को सम्पर्क भाषा बनाना भीउतना ही आसान है बशर्ते हम संकल्प लें।

सम्मेलनका दूसरा पहलू है भारतीय भाषाओं का सम्मान। इस मुद्दे पर मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा।वह स्कूल जिसमें मेरी आस्था है वह भारतीय भाषाओं के बीच आर्य-द्रविड़ के भेद को ख़ारिज करता है। वह स्कूल इस बात को भी ख़ारिज करता है किकोई भारोपीय भाषा नाम का भाषा वर्ग है। इस स्कूल की मान्यता है कि भारत की सभी भाषाएँप्राकृत परिवार की हैं। प्राकृत पूरे भारत में आज भी प्रचलित है और धड़ल्ले से बोलीजाती है। बस षडयंत्र यह किया गया कि भाषाओं को सिंथेटिक बनाने को लिए एक भाषा विशेषके शब्दों को तत्सम के नाम पर ठेल कर मूल शब्दों का या तो अपहरण कर लिया गया या उनकीहत्या कर दी गई। घरों में मूलभाषाओं, भोजपुरी-राजस्थानी-अवधी आदि भाषाओं की जगह खड़ी बोली ठेल दी गई।

अबमैं कुछ उदाहरण दूँगा जो भारतीय भाषाओं के एक परिवार का होने के साक्ष्य को प्रस्तुतकरता है और सिद्ध करता है कि भारतवासी आपस में बात करते थे तब भी जब अंग्रेज़ी नहींआई थी इस भूखंड पर।

क़रीबचार साल पहले मैं अमरनाथ की यात्रा पर गया था। बालटाल से पालकी पर गया। मुझे ढोने वालेमुसलमान पोर्टर थे। वापसी में सुस्ताने के लिए वाहकों ने पालकी रखी। सुस्ताने के बादजब आगे चलने के लिए पोर्टर पालकी उठाने लगे तो एक ने कहातुलस। मेरे कान खड़े हो गए। मैंने अर्थ पूछा तो उसनेबतायाउठाइए। अब जान लें यह न अंग्रेज़ीहै और न संस्कृत। बांग्ला में उठाने के लिएतुलबोलते हैं और कन्नड़ में अनुरोध करने के लिए शब्द के अंत मेंजोड़ते हैं जैसे कि क्षमा करने के लिएक्षमिसि। तो उठाइए के लिए कश्मीर का मुसलमान बांग्लाकातुलउठाकर उसमें कन्नड़ काजोड़ करतुलसबनाता है। क्या लगता नहीं कि कश्मीर, बंगाल औरकर्नाटक के लोग कभी आपस में बात करते होंगे और लिफ़्ट प्लीज़ की जगहतुलसबोलते होंगे।

बनारसपान के लिए मशहूर है तो जहाँ-तहाँ पान थूकने के लिए बदनामभी है। जिस जगह लिखा होगा यहाँ न थूकें तो वहीं थूकेंगे। मंगळुरु के बस स्टैंड पर खड़ाथा कि दीवार पर लिखी इबारत पढ़ी - उगुळु बारदे। इस पद का मतलबहै थूकना मना है। यह जो उगुळ शब्द है उसपर ध्यान दें। हिंदी वाले जिन द्रविड़ भाषाओंकी बेइज़्ज़ती करते हुए मज़ाक़ उड़ाते हैं उसका उगलना शब्द संस्कृत से नहीं कन्नड़के उगुळ से बना है।

ऐसेभाषा वैज्ञानिकों की संख्या कम नहीं है जो कहते हैं कि संस्कृत ने कईदेश्यशब्दों को अपना लिया। निश्चित ही उन भावों केलिए संस्कृत में शब्द नहीं होंगे। शब्द अपनाना कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन उनको अपनाकह कर मूल शब्दों को तत्सम कहना सरासर ग़लत है। अब देखिए कन्नड़ में शब्द हैं आचुऔरआचिसुजिसका मतलब दीनताके साथ माँगना है और यह हिंदी के याचना जैसा ही है। कन्नड़ की दो डिक्शनरियों में इसेकन्नड़ मूल का बताया गया है लेकिन नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित संक्षिप्त हिंदीशब्दसागर में इसे संस्कृत मूल का बताया गया है। मैं इसे नहीं मानता।

ऐसाही एक कन्नड़ शब्द हैवसारॆजिसेहिंदी इलाकों की मूल भाषाओं मेंऒसाराकहा जाता है। हिंदी वालों ने इसके संस्कृत मूलउपशालाको खोज लिया जो कि वैज्ञानिक रूप से ग़लत है। द्रविड़ भाषाओं में जोभी तत्सम शब्द गए हैं वो आमतौर पर मूल रूप में गए हैं। उपशाला हिंदी इलाकों मेंऒसाराबन कर कन्नड़ मेंवसारॆबना होगा यह वैज्ञानिक नहीं जान पड़ता।

सिर्फहिंदी ही क्यों? कटील मंगळुरु के पास एक देवी का मंदिर है।कटील की माँको कन्नड़ में कहते हैंकटील द अप्पे। अगर पंजाबी मेंमाँके लिए अप्पे शब्द का इस्तेमाल किया जाए तो कटील की माँको पंजाबी में क्या कहेंगे? कटील द अप्पे। है न!

सभीद्रविड़ भाषाओं में काला के लिए करिया या करि शब्द का प्रयोग होता है। करिया बनारसऔर पूरे बिहार में भी इस्तेमाल होता है। स्पष्ट है करिया द्रविड़ तत्सम है और संस्कृतका काला तद्भव।

यहअवसर विस्तार से बताने का नहीं है। इस विषय पर पहली बार हिंदी में सन् 1967में लिखा गया था जब लोहिया जी अंग्रेज़ी हटाओ आन्दोलन चला रहे थे औरदक्षिण में हिंदी का उग्र विरोध हो रहा था। उस समय रुड़की विश्वविद्यालय में तैनातसंस्कृत के प्रकांड विद्वान पं॰ काशीराम शर्मा ने एक किताब लिखी जिसका नाम थाद्रविड़ परिवार की भाषा हिंदी। इस पुस्तक कोकोई प्रकाशक छापने को तैयार नहीं था। तब पं काशीराम शर्मा ने यह पुस्तक खुद छपवाकरमुफ़्त में बाँटी। इस पुस्तक को आधार बनाकर कई किताबें लिखी गईं लेकिन पढ़ाई नहीं जातीक्योंकि यह भेदभाव पर आधारित भाषाविज्ञान की पोल खोलता है। लोहिया जी के हाथ में वोकिताब नहीं लगी होगी नहीं तो वो दक्षिण में हिंदी विरोधियों को दिखाकर कहते कि वो नाहकहिंदी का विरोध करते हैं। हिंदी तो द्रविड़ परिवार की ही भाषा है। वह अवसर खो दियागया। आज हमारे हाथ में यह अवसर है। इस सम्मेलन में हमें संकल्प लेना चाहिए कि हम भारतकी तमाम भाषाओं की परस्परता को उजागर करते हुए अंग्रेज़ी को बाहर करके समाज विज्ञानऔर विज्ञान की भाषा अपनी-अपनी मातृभाषा में एक सामान्य शब्दावलीके माध्यम से करेंगे। हम कम से कम दो और भाषाएँ सीखेंगे जिसमें से एक द्रविड़ भाषाहो।

मैंज्यादा चपड़-चपड़ नहीं करूँगा। (जानतेहैं तेलुगु में बोलने या कहने को बोलते हैं चापंडि, और ये चपड़-चपड़ तेलुगु से हिंदी में आया है)। जब आप खाना सड़प रहेहोंगे तो मेरे नाम का एक निवाला ज़रूर मुँह में डाल लीजिएगा। तमिऴ में खाने को साप्पाड़कहते हैं उसी से हिंदी का सड़पना बना है। मैं बस इतना ही कहूँगा कि जिसने मंगळुरु जाकर गड़बड़ आइसक्रीमनहीं खाई उसने आइसक्रीम ही नहीं खाई। जानते हैं गड़बड़ का मतलब होता है जल्दीबाज़ीया अफ़रातफ़री। गड़बड़ शब्द कन्नड़ से हिंदी में आया। गड़बड़ आइसक्रीम जल्दीबाज़ी-अफ़रातफ़री में कुछ-कुछ मिलाकर तैयार कर दी जाती है।हम आज जब साप्पाड़ सड़पना के बाद अगर आइसक्रीम खाएँ तो संकल्प लें कि भारतीय भाषाओंके बीच भेदभाव के गड़बड़ को मिटा कर रहेंगे।  मैं सम्मेलन में पहुँच नहीं पाया(हिंदी में जाने के लिए गम् धातु है लेकिन पहुँचना में तमिऴ का पोह धातुऔर इच्चु धातु है - पहुँचना मतलब जा [पोह]कर छूना [इच्चु], मतलब तमिऴउत्पत्ति)। मेरे न पहुँचने के लिए क्षमा करिएगा - क्षमिसि।

आजशाम को विश्वनाथ गली में जब जाइए तो कान खुले रखिएगा कि एक बनारसी किसी तमिऴभाषी सेकैसे बात कर रहा है।

बातसमाप्त करते हुए भारतेंदु जी को फिर याद करता हूँ उनकी कविता की दूसरा पंक्ति को उद्धृतकरना चाहूँगा - निजभाषा उन्नति बिना मिटै न हित रो शूल। यदिहम अपनी मातृभाषा में बात नहीं करते हैं तो हम अपने दिल का दर्द बयान नहीं कर सकते।यही कारण है कि जब हम अपनी बात कहना चाहते हैं तो शब्द नहीं मिलते मन से गालियाँ निकलतीहैं। गालियाँ यह सिद्ध करती हैं कि हमारी मातृभाषा कमज़ोर पड़ रही है। सोशल मीडियामें टेरोल की भाषा पर ध्यान दीजिए उनको अपनी मातृभाषा ही नहीं आती।

धन्यवादनमस्कार!