मिस्त्री और सिक्का : बीमार कारपोरेट
इन्फ़ोसिस के सीईओ सिक्का का इस्तीफ़ा और पिछले साल टाटा सन्स से साइरस मिस्त्री को बर्खास्त किया जाना एक जैसी घटना है। रतन टाटा ने अपनी उम्र के चलते टाटा सन्स को नया नेतृत्व देने का निर्णय लिया था। एक कमेटी गठित कर साइरस मिस्त्री को टाटा सन्स की कमान दी गई। लेकिन पिछले वर्ष चौबीस अक्टूबर को ‘तख्तापलट’ कर, जैसा कि साइरस मिस्त्री ने कहा था, उनसे टाटा सन्स की कमान से बर्खास्त कर दिया गया। साइरस मिस्त्री ने अपने हटाए जाने पर कहा कि टाटा परिवार के व्यावसायिक साम्राज्य के संस्थापक पितामह जमशेदजी टाटा की नीतिपरक परम्पराओं की सुरक्षा और संरक्षण के लिए क़दम उठाने के कारण ही उनको बाहर का रास्ता दिखाया गया। चुस्त प्रशासन और नैतिक मूल्यों पर आधारित व्यवसाय कुछ लोगों के लिए परेशानी का सबब बनता जा रहा था। उन्होंने रतन टाटा के नज़दीकी सिवसंकरन के मामले का उदाहरण भी दिया। उन्होंने कहा कि रिटायरमेंट के बाद भी रतन टाटा की बोर्ड की कार्रवाई में दख़लंदाज़ी बढती जा रही थी।
आज सिक्का ने इस्तीफ़ा देते हुए कहा कि काम के माहौल में बढ़ते शोर के कारण उन्होंने इस्तीफ़ा दिया। नारायणमूर्ति ने भी एक घटिया टिप्पणी कर दी कि सिक्का सीईओ (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) के बजाए सीटीओ (मुख्य तकनीकी अधिकारी) हैं। सिक्का ने अपनी उपलब्धियों को गिनाते हुए नारायणमूर्ति की दख़लन्दाज़ी के आरोप की पृष्ठभूमि में अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया।
मिस्त्री और सिक्का कोई जूनियर स्तर के प्रोफ़ेशनल तो रहे नहीं कि इंटरव्यू में पास होने और कुछ समय काम करने के बाद पता चले कि ये तो खोटे सिक्के थे। साइरस मिस्त्री और सिक्का अपने अपने क्षेत्रों में स्थापित प्रोफ़ेशनल थे। इनकी योग्यता और काम के बारे में दुनिया को पता रहा होगा। कुछ समय काम करने देने के बाद इन्हें योग्यता पर सवाल उठाते हुए हटाना पचने वाली बात नहीं है।
भारतीय कारपोरेट बीमार है, यह दो घटनाएँ बताती हैं। देश का कारपोरेट परिवार के क़ब्ज़े में है, परिवार का मुखिया मोह छोड़ नहीं पाता और नई पीढ़ी को स्वीकार नहीं कर पाता। यहाँ सब कुछ ख़ानदानी है। कारपोरेट जगत में लोकतंत्र के लिए बराए नाम भी जगह नहीं है। किसी भी कम्पनी पर नज़र डालिए वह अपने चरित्र में पूरी तरह से ख़ानदानी है। भारत में विकास के राह में एक बहुत बड़ा रोड़ा यही है। हैदराबाद की एक बड़ी कम्पनी अपने बेटे के मोह में क्या कुछ कर डालती है। साम्राज्य के मोह में एक बड़े घराने में दो फाड़ हो जाता है। कारपोरेट जगत सरकारी संस्थाओं पर लगातार उँगलियाँ उठाता रहता है लेकिन अपने अन्दर नहीं झाँकता। प्राइवेट सेक्टर देश के विकास से ज़्यादा पारिवारिक साम्राज्य पर अपनी पकड़ बनाने में ज़्यादा रुचि रखता है।
ये दो घटनाएँ बताती हैं कि देश का कारपोरेट जगत बीमार है। सरकार और नियामक संस्थाएँ इन परिस्थितियों को कैसे सम्हालें ऐसा कोई संकेत कभी नहीं मिला है।
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