किसान आन्दोलन Farmers’ Movement



किसान आन्दोलन के बदलते स्वरूप


उज़्बेग और समरकंद में असफल होने के बाद अपने अधीन एकछत्र राज्य की तलाश में बाबर ने भारत की ओर रुख़ किया। अपने अभियान में उसने लगभग पूरे गंगा-जमुना मैदान पर क़ब्ज़ा जमा लिया। अपने छोटे से कार्यकाल में बाबर बस विजय रथ पर सवार घूमता रहा। पूरे देश में अराजकता का माहौल क़ायम हो गया था। अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई थी। खेती में ज़मीनदारों के अपने क़ानून का बोलबाला था। बाबर के बाद हुमायूँ अपने विजय अभियान और अय्याशी में व्यस्त और मस्त था कि शेरशाह सूरी सत्ता पर क़ाबिज़ हो गया। शेरशाह सूरी ने खेती की भूमि के उचित सर्वे के आधार पर मानवोचित भू-राजस्व व्यवस्था लागू की। भू-राजस्व बिना किसी बिचौलियों के काश्तकारों से सीधे वसूल करने की व्यवस्था बनाई गई। खेती की ज़मीनों को काश्तकारों को पट्टे पर उपलब्ध काराने की व्यवस्था की। फसल नष्ट होने की स्थिति में भू-राजस्व की माफ़ी और काश्तकारों को राजकोष से ऋण दिलाने की व्यवस्था की गई थी। अपने दूसरे कार्यकाल में भी हुमायूँ को ज़्यादा समय नहीं मिला होगा खेती और अर्थव्यवस्था पर ध्यान देने के लिए। अकबर के लम्बे शासनकाल में टोडरमल ने लगान की एक न्यायोचित व्यवस्था स्थापित की जिससे काश्तकारों को परेशानी हो। जहाँगीर और शाहजहाँ के शासनकाल में प्रशासन कमज़ोर होता गया। शाहजहाँ के शासन काल में दक्कन और गुजरात में भयावह सूखा पड़ा स्पष्ट है कि खेती बरबादी के कगार पर पहुँच गई होगी।


औरंगज़ेब का शासन आते आते लगान व्यवस्था तहस नहस हो चुकी थी। मुग़ल शासन को पहला ज़ोरदार धक्का औरंगज़ेब के ज़माने में जाटों और सतनामी सम्प्रदाय के लोगों ने दिया। आगरा और दिल्ली के आसपास रहने वाले काश्तकारों ने सत्रहवीं शताब्दी के द्वितार्ध में मुग़ल साम्राज्य के भू-राजस्व व्यवस्था के ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल बजा दिया था। मथुरा के आसपास के सतनामी सम्प्रदाय से जुड़े काश्तकार भी विद्रोह में उठ खड़े हुए। मुग़ल युग के दौरान हिंदू हों या मुसलमान, काश्तकार और दस्तकार, बेहद ग़रीबी में जी रहे थे। फिर शासक चाहे मुग़ल हों या हिंदू। बाद में उत्तराधिकार की लड़ाई के कारण परिस्थितियाँ बिगड़ती गईं। अयोग्य, अय्याश और स्वार्थी राजाओं और सूबेदारों, मुग़ल और हिंदू दोनों, ने ख़ज़ाने का भरपूर दोहन अपने व्यक्तिगत हितों के लिए किया। ख़ाली होते ख़ज़ाने की भरपाई काश्तकारों से लगान वसूल कर किया जाता था। सत्रहवीं और अट्ठारहवीं शताब्दी के दौरान काश्तकारों की हालत लगातार बिगड़ती गई। अकबर के शासन के बाद से काश्तकारों पर लगान का भार बढता गया। औरंगज़ेब की मृत्यु के बादइजरायानी लगान वसूलने की नीलामी शुरू कर दी गई। लेकिन काश्तकारों की पीठ पर सवार जो विद्रोह भी हुए वो अंत में मुखिया की महत्वाकांक्षा की पूर्ति में समाप्त हो गए। 


इतिहासकारों के अनुसार मुगल शासन व्यवस्था चरमराई क्यों कि इस कार्यकाल में खेती और उद्योग की नई पद्धति विकसित करने पर कोई काम नहीं हुआ जैसा कि यूरोप में हो रहा था। बहादुरशाह ज़फ़र के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासकीय शक्ति केन्द्र के रूप में उभरने के बाद हिंदुस्तान में कुछ नया हो सकता था लेकिन उनका भी उद्देश्य अपने व्यवसाय की पूर्ति ही रहा। यूरोप के वैज्ञानिक खोजों का लाभ देश को नहीं मिल सका। 


अत: काश्तकारों द्वारा विद्रोह का सिलसिला ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासनकाल में भी चलता रहा। बंगाल के नदिया और जेसोर ज़िले के किसानों ने नील की खेती के अन्यायपूर्ण व्यवस्था के ख़िलाफ़ संगठित हुए। सन् 1859-60 के दौरान उभरे इस विद्रोह को नील विद्रोह का नाम दिया गया।इंडिगो रिबेलियननाम की अपनी किताब में आनन्द भट्टाचार्य ने लिखा है कि नील विद्रोह आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ पहला प्रतिरोध था और यह कई दशकों से खदबदा रहे असंतोष का नतीजा था। उनके अनुसार नील विद्रोह 1857 के सिपाही विद्रोह से अलग आन्दोलन था और यह अंग्रेजों के विरुद्ध प्रतिरोध को गति प्रदान करने में सहायक हुआ। ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेज़ी शासन के दौरान देश की सम्पदा की लूट और शोषणकारी लगान व्यवस्था के कारण खेती नष्ट होती गई और अकालों का सिलसिला शुरू हुआ। 


सन् 1872 से 1876 के बीच पूर्वी बंगाल के पबना इलाक़े में काश्तकारों ने मनमाना लगान वसूलने और खेत से बेदखली के मुद्दे पर ज़मीनदारों के विरुद्ध एक शांतिपूर्ण आन्दोलन चलाया। कुछ परगनाओं के किसानों ने अपने क्षेत्र को जमीन्दार नियंत्रण से मुक्त भी घोषित कर लगान देना बन्द कर दिया। इस आन्दोलन को साम्प्रदायिक रंग देने का भी एक असफल प्रयास किया गया। इस आन्दोलन के फलस्वरूप बंगाल टेनैन्सी एक्ट 1885 पारित किया गया। पंजाब में भी लगान व्यवस्था और खेती की ज़मीन पर हक़ को लेकर 1890 से 1900 के बीच विद्रोही आन्दोलन चला। दक्कन में भी पुणे और अहमदनगर में महाजनों के विरुद्ध 1875 में पहले शांतिपूर्ण बाद में हिंसक आन्दोलन चला। 


वर्ष 1917 के चम्पारण सत्याग्रह से किसान आन्दोलन ने अहिंसक रूप अख़्तियार किया। चम्पारण में नील की खेती के सम्बन्ध में शोषणकारी तीनकठिया व्यवस्था के विरुद्ध अहिंसक सत्याग्रह आन्दोलन के दबाव में आकर अंग्रेज़ी शासन को जाँच कमेटी बनानी पड़ी। अहिंसा का यह क्रम 1918 में गुजरात के खेड़ा में भी दुहराया गया। इस तरह आज़ादी के आन्दोलन के साथ साथ किसान आन्दोलन भी अहिंसा की राह पर चल पड़ा। इस बीच कुछेक हिंसक आन्दोलन भी हुए जैसे 1921 का मालाबार क्षेत्र का मोपला या मपिल्ला आन्दोलन।  इस आन्दोलन को साम्प्रदायिक रंग भी देने की कोशिश की गई लेकिन मालाबार क्षेत्र के कांग्रेस नेता के पी केशव मेनन ने इससे इनकार करते हुए कहा है कि यह ख़िलाफ़त आन्दोलन को दबाने के लिए पुलिस की दमनकारी नीतियों के कारण पैदा हुआ कि ज़मीनदार और काश्तकार के बीच किसी विवाद के कारण। इस आन्दोलन को कठोरता के साथ दबा दिया गया।


आज़ाद भारत में किसानों को उम्मीद थी कि उनके काश्तकारों के हक़ को महत्व देते हुए कारगर विधाई और प्रशासनिक इंतज़ाम किए जाएँगे। भूमि सुधार सम्बन्धी क़दम धीमी गति से बढ़ रहे थे। यद्यपि कि इस दौरान सिंचाई आदि के लिए बड़ी सिंचाई परियोजनाओं का आयोजन और क्रियान्वयन चलता रहा। धीमी गति से चल रहे भूमि सुधार के विरोध में किसानों का असन्तोष पनपता रहा, आन्दोलन कभी शांत तो कभी उग्र होते रहे। 


जर्नल ऑफ़ डिफ़ेंस स्टडीज़ के अप्रैल 2010 अंक में छपे अपने लेख में रमण दीक्षित ने कहा है कि आज़ादी के बाद ज़मीनदारी उन्मूलन और भूमि सुधार कार्यक्रम शुरू तो किए गए लेकिन एक तो यह धीमा और दोषपूर्ण था जिसका बड़ा फ़ायदा भूमि स्वामियों ने उठाया। पश्चिम बंगाल में  ही 1947 से 1969 के बीच तीन प्रतिशत से भी कम खेती योग्य भूमि का काश्तकारों में पुनर्वितरण हो सका। काश्तकारों में व्याप्त भीषण असन्तोष नक्सल आन्दोलन के रूप में सामने आया। इस प्रकार काश्तकार आन्दोलन एकबार फिर हिंसक हो उठा। नक्सल आन्दोलन आज भी ज़ारी है। यह हिंस्र से हिंस्रतर होता गया है।


पिछली शताब्दी के साठ के दशक के दौरान कृषि वैज्ञानिक डॉ नॉर्मन बोरलॉग द्वारा ईजाद की गई छोटे क़द की अधिक उपज वाली गेहूँ की क़िस्म और उसके आधार पर अन्य फसलों में उपज बढ़ाने सम्बन्धी शोध के फलस्वरूप हरित क्रांति के प्रदुर्भाव और उसके समर्थन में बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने खेती को नई कक्षा में स्थापित कर दिया। लेकिन निवेश केंद्रित नई खेती मँहगी थी। किसानों की समस्या अब भूमि सुधार के साथ साथ आय सुधार के एजेंडे पर गई। इस मसले को हल करने के लिए फर्टिलाईजर अनुदान और न्यूनतम समर्थन मूल्य आदि की व्यवस्था की गई लेकिन आज तक यह व्यवस्था राहत नहीं दे पाई। फसलों के लाभकारी मूल्य के लिए उत्तर प्रदेश में महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों को संगठित किया तो महाराष्ट्र में शरद जोशी किसानों की समस्या को लेकर आन्दोलनरत रहे। फसलों के लाभकारी मूल्य के लिए आन्ध्र प्रदेश, उत्तरी कर्नाटक, महाराष्ट्र में खेती हड़ताल के माध्यम से भी दबाव बनाने की कोशिश की गई। लेकिन ये सारे आन्दोलन एक सीमा तक जाकर ठहर गए।


अपनी समस्याओं का समाधान पाकर निराश किसानों ने आत्महत्या का रास्ता अख़्तियार करते हुए अपने प्राणों की आहुति देना शुरू किया। एक तरफ़ नक्सलवाद आत्मघात के रास्ते पर चल रहा है तो दूसरी तरफ़ एक बड़े क्षेत्र के किसान आत्महन्ता हो चले हैं।


मेधा पाटकर एक लम्बे समय से नर्मदा पर बनने वाले बाँधों से प्रभावित क्षेत्रों में ग्रामवासियों और किसानों के हक़ की लड़ाई जल समाधि के माध्यम से लड़ रही हैं। अपेक्षित सफलता उन्हें भी नहीं मिल पाई है।


अहिंसक आन्दोलन की शृंखला में तमिऴनाडु के किसान पिछले कुछ दिनों से विचित्र रास्ता अख़्तियार किए हुए हैं। दिल्ली में जम कर धरना देने वाले ये किसान अपने आत्महत्या के कारण मृत परिवारों के कंकाल के साथ आए हुए हैं। खाने के नाम पर कभी ये मरे चूहे खा रहे हैं तो कभी अपना मल। पानी की जगह ये अपने ही मूत्र का पान कर रहे हैं। कोई इनकी ख़बर लेने वाला नहीं है। 


इसी बीच जयपुर से रही ख़बरों के अनुसार सरकार द्वारा उपजाऊ ज़मीनों के अधिग्रहण के विरोध में किसानों ने अपनी अधिग्रहण की जाने वाली भूमि में समाधि लेकर पड़े हुए हैं। उन्होंने दीवाली भी समाधिस्थ हो कर ही मनाया। कहा जाता है कि खेती एक अलाभकारी व्यवसाय बन कर रह गया है। फिर भी किसान खेती को ही वरीयता देते हैं। भूमि अधिग्रहण के सम्बन्ध में नैनो के विरोध में बंगाल में सिंगूर के किसानों का आन्दोलन सबसे ज्वलन्त उदाहरण है जिसने बंगाल की सत्ता बदल के रख दी। नैनो परियोजना गुजरात में स्थानान्तरित की गई राज्य की सहायता देकर भी। लेकिन वही नैनो परियोजना अब गुजरात के चुनाव में एक मुद्दा बन कर उभरा है क्योंकि अधिग्रहीत उपजाऊ ज़मीन पर लगाई गई यह परियोजना असफल हो चुकी है। 


गुजरात चुनाव प्रचार में किसानों की समस्या एक प्रमुख मुद्दा बन कर उभरा है। किसानों के अधिकार के समर्थन में एक पक्ष दूसरी पार्टी के प्रत्याशियों के गाँवों में प्रवेश पर भी रोक लगाने की घोषणा कर दी है किकिसान सिर्फ खेती ही नहीं करेगा, किसान जवाब भी देगा


किसान आन्दोलन का  इतिहास इतना छोटा नहीं है जितना इस लेख में संकलित किया गया है। फिर भी स्पष्ट नज़र आता है कि आज तक कोई भी किसान आन्दोलन ख़ास फ़ायदा नहीं पहुँचा पाया और असफल ही हुआ है। किसानों की बदहाली किसी भी निज़ाम के आर्थिक बदहाली की प्रथम सूचना होती है। खेती अर्थव्यवस्था का प्राइमरी सेक्टर है और अर्थव्यवस्था जब बदहाल होती है तो उसका प्रभाव भी सबसे पहले खेती पर ही पड़ता है। देश की अर्थव्यवस्था सुधारने का रास्ता कृषि से ही होकर गुज़रता है। आजतक के इतिहास में खेती सिर्फ ख़ज़ाने की भरपाई के ही काम आई है। काश्तकार और खेती को भी ख़ज़ाने का उपयुक्त हिस्सा मिलना चाहिए। काश्तकार की पीठ पर सवार अर्थव्यवस्था तभी फलदायी होगी।