नाम गुम जाएगा

;नाम गुम जाएगा


मेरा सम्बन्ध इलाहाबाद शब्द से भावनात्मक तौर पर जुड़ा हुआ है। क़रीब : साल पहले मंगळुरु जाना हुआ। एक अनौपचारिक  समारोह में मुझे बोलना था। माहौल कुछ चुटीला था। मैंने सम्बन्ध निकाला कि इलाहाबाद संगम तट पर बसा है और मंगळुरु भी। मंगळुरु का पुराना और मूल तुऴु नाम कुडला है और कुडला का मतलब होता है संगम। प्रयाग का मतलब भी संगम होता है। उत्तराखंड के पंच प्रयाग के नाम से तो सब वाक़िफ़ ही होंगे। प्रयाग पूरी धरती पर फैले हुए हैं। इलाहाबाद प्रयागों में प्रयाग है, प्रयागराज निस्संदेह लेकिन है वह एक भौतिक और भौगोलिक नाम, ऐतिहासिक नहीं।


शेरशाह सूरी की मृत्यु भारत के इतिहास का टर्निंग प्वाइंट माना जा सकता है। शेरशाह सूरी ने अपने जीते जी मुग़लों को देश में पैर जमाने दिया। अगर वह लम्बे समय तक ज़िन्दा होता तो देश को ग्रैंड ट्रंक रोड के अलावा भी बहुत कुछ नहीं मिलता और शायद मुग़ल होते। मुग़लसराय अब इस नाम से जाना जा रहा है कि पंडित दीन दयाल उपाध्याय की वहाँ पर हत्या हुई थी। अपने पाँच साल के कार्यकाल में शेरशाह सूरी के विकास-विप्लव की अनदेखी कर दी गई।  


उर्दू के मशहूर नामानिगार मरहूम रामलाल मूलत: पाकिस्तान के रहने वाले थे। बँटवारे के बाद घूमते विस्थापित होते लखनऊ में आकर बस गए। इत्तेफ़ाक़न उनका घर मेरे घर के नज़दीक ही है और उनके बेटे वीर विनोद छाबड़ा फेसबुक पर मेरे साथ पाँच हज़ार लोगों के दोस्त हैं। पैदाइश के जगह की हवा में ग़ज़ब की कशिश होती है, वो हवा बुलाती रहती है। और रामलाल जी भी बँटवारे के क़रीब तैंतीस साल बाद अपने पैदाइश की जगह मियाँवाली पाकिस्तान गए और एक सफ़रनामा लिख डाला, ज़र्द पत्तों की बहार। लाहौर में उन्होंने पाया किअजायब घर के पास सर गंगाराम अस्पताल भी अपने असली नाम के साथ मौजूद था गोकि उसकी भव्य मूर्ति वहाँ मौजूद नहीं थी जिस के बारे में सआदत हसन मंटो ने अपनीस्याह हाशियेपुस्तक में एक लतीफ़ा बयान किया था कि जब उस मूर्ति को तोड़ने की कोशिश में एक व्यक्ति उसके ऊपर चढ़ गया तो वह सहसा ही ऊँचाई से गिरकर सख़्त ज़ख़्मी हो गया। उसे इलाज के लिये उसी महान व्यक्ति के नाम वाले अस्पताल में दाख़िल करा दिया गया। अब उसकी मूर्ति अजायब घर में रखी हुयी है। शायद उसी घटना के बाद से पकिस्तान का ज़मीर उस अस्पताल का नाम बदल देने के लिये तैयार हो सका तो आपको ज्ञात हो कि दिल्ली का सर गंगाराम अस्पताल और लाहौर का सर गंगाराम अस्पताल अपने मूल नाम से आज भी मौजूद हैं।


आज सुबह मैं रोनू मजूमदार का बाँसुरी वादन सुन रहा था। धमार और ख़याल सुनाने के बाद, बनारस का होने के नाते उन्होंने कार्यक्रम के अंत में बनारसी लग्गी-लड़ी सुनाने की इच्छा ज़ाहिर की। मैं सोचने लगा कि उन्होंने बिस्मिल्ला खाँ की शैली ही क्यों चुनी - झूला धीरे से झुलावा बिहारी सँवरिया रे। लग्गी-लड़ी को गारा-राजस्थानी माँड से सजाते हुए, कभीचइतीकी तर्ज पर ले जाते हुए एकाएक बीच में रोक कर कहा कि ये जोनोटहै वो पंजाब का है। मैं समझ नहीं पाया कि वो पंजाबी सुर आज़ादी के पहले का है कि बाद का। हिंदुस्तानी संगीत तो बँटवारे के बहुत पहले ही जन्म ले लिया था। मैं समझ नहीं पाया कि बिस्मिल्ला खाँ की शैली में और उस पंजाबीनोटमें मैं मुसलमान-पन कहाँ से निकालूँ। हर मंदिर-कीर्तन में बजने वाला तबला, उसके ऊपर मढ़े चमड़े को नज़रअंदाज़ भी कर दें तो, एक मुसलमान अमीर खुसरो ने बनाया। और कोई भी संगीत कार्यक्रम ख़याल के बिना अधूरा है। यह ख़याल शैली भी अमीर खुसरो ने ही ईजाद की है। तो क्या हम तबला और ख़याल का इस्तेमाल छोड़ दें? तब तो हिन्दुस्तानी संगीत का अस्तित्व ही नहीं बचेगा। आज के गायक-वादक ख़याल तो ठीक से गा-बजा नहीं सकते उनसे उम्मीद करें कि वो ध्रुपद-धम्मार गाएँगे-बजाएँगे? जहाँ तक मुझे मालूम है कि पाकिस्तान में आज भी राग दुर्गा को उसी नाम से सम्बोधित किया जाता है। मुझे समझ में नहीं आता कि हम मियाँ की मल्हार, मियाँ की तोड़ी, दरबारी कानड़ा आदि रागों का क्या करेंगे


आर्य कहाँ से आए इस पर विवाद हो सकता है लेकिन कई जातियाँ और नस्ल जो आज देश में निवास कर रही हैं और हिंदू धर्म का हिस्सा हैं देखने से लगता है उनकी नस्ल संकर होगी। राज-काज के जय-पराजय के खेल में जनसंख्या का मिलन होना स्वाभाविक है। अगर ग़ौर से देखें तो पाएँगे कि कई आँखें हिन्दुस्तानी नहीं होंगी, उनमें पुर्तगालियों, यूरोपियों, यहूदियों और अफ़ग़ानियों आदि देशी-विदेशी नस्लों की झलक मिलेगी जो हिंदू नहीं होंगे। अपनी अनुवांशिकी से पीछा छुड़ाना असम्भव है, अपने सारे वैज्ञानिक ज्ञान और कौशल के बाद भी। जो नस्ल शुद्ध बनने का प्रयास करती है मिट जाती है यह अनुवांशिका का नियम है। 


संस्कृत के प्रकांड विद्वान काशीराम शर्मा ने अपनी पुस्तकभारतीय वाङ्मय पर दिव्यदृष्टिमें लिखा है कि इंग्लैंड से आए शासक वर्ग और ईसाई धर्म प्रचारकों ने एक तरफ़ भारोपीय भाषा का जुमला छोड़कर हिंदुओं के मन में बैठाया कि यूरोप का शासक वर्ग तो हमारे ही वर्ग का है। दूसरी तरफ़ उन्होंने इस्लाम के अनुयायियों को कहा कि वो उन्हें बुतपरस्त और प्रतिशोध की भावना से भरे आर्यों के हाथ में सौंप कर नहीं जाएंगे। तीसरी तरफ़ उन्होंने द्रविड़ समाज को आश्वासन दिया कि वो उन्हें अल्पविकसित आर्यों से, जिन्होंने उनके उन्नत साहित्य और संस्कृति को नष्ट किया है, से मुक्ति दिलाएँगे। इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि पूरा भारतीय समाज अंग्रेज़ों के फेंके चारे पर आज भी जुगाली कर रहा है। यह प्रवृत्ति राष्ट्र के अन्दर विभिन्नराज्योंके बीच अविश्वास बनाए रख कर आज भी हमें एक होने से रोक रहा है। इस प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगेगी तो नाम बदलते रहें, कहीं ऐसा हो कि हमारा नाम ही गुम हो जाए।