कविता

कविता नही हूँ मैं,
तीर सा चुभता शब्द हूँ मैं।
शब्दों में पिरोई, मोतियों का गुच्छा हूँ मैं,
शब्द नही शब्द का सार हूँ मैं ।।

कटते पेड़ों की उन्मादी हवा हूँ मैं,
प्रकृति का बिगड़ता संतुलन हूँ मैं।
बाइबल हूँ, कुरान हूँ मैं,
अपने आप मे एक महाभारत हूँ मैं ।।

हर नए शुरुवात की हडबडाहट हूँ मैं
शर्दियों में ठिठुरते बेघरों की ठिठुरन हूँ मैं ।
गर्मियों में तपते मजदूर का,
बहता पसीना और गर्माहट हूँ मैं।।

लोभ, छोभ,मोह, माया और उत्साह हूँ मैं
दुख, दर्द, घाव , बीमारी और इलाज हुँ मैं ।
किसी एक ने लिखा नही है मुझे,
बहुतों के पीड़ा और दर्द का अहसास हूँ मैं।।

हिंसा और आराजकता हूँ मैं,
भय, चिंता और कलेश हुँ मैं ।
प्यार, भाईचारा और आपसी सौहार्द हुँ मैं

किसी के भीतर पल रहे भावों का उन्मांद हूँ मैं
लिखने वाले की पहचान हूँ मैं,
दशों रस, तीनों गुण और
चारों ऋतुओं का पोशाक हूँ मैं
मुझे लिखने वाले की पहचान हूँ मैं,